Sunday, March 15, 2009

Aas...

आस

हर सवेरे सूर्य की स्वर्णाभ किरणों से निखर,
ऐसे की जैसे लालिमा नभ में गई सी हो बिखर
हो की जैसे हर वसंत में पुष्प की भीनी सुगंध,
और जैसे पूर्णिमा की चांदनी सी हो बिखर

ओस की बूंदों पर जो पहली किरण पड़ती हुई ,
बादलों के बीच से वो पुष्प सी हंसती हुई
झूठ में तारीफ़ के पुल बांधना आता नही,
पर क्या करें मुस्कान के कायल यहाँ हम भी सही

जानते हो क्यूँ चकोर बस चाँद ही देखा करे ,
क्योंकि उसे अपने और भँवरे में फर्क मालूम ही है
हर विहाग हर रोज़ उड़ नई डाल पर जाते तो हैं ,
पर रात को वो लौट कर वापस वहीं आते भी हैं

बादलों की काली घटा के पीछे छुपा सा नीर है ,
वो नीर धरती पर गिरे तो धरती महक जाती ही है
तेरी ये जुल्फों पे हजारों लोग यूँ मरते नही,
इस घटा से ज़िन्दगी की सेज महक जाती ही है

तुम अगर हो स्स्मने तो सूर्य भी मध्यम लगे ,
तुम चलो जो सामने तो हर नदी फीकी पड़े
हो मुझे इस ज़िन्दगी से कोई भी शिक्वह नही ,
गर तुम्हारी ज़िन्दगी में हमको कोई आँगन मिले

कोई अलग बेला का हमको इंतज़ार होगा नही ,
पर जब तुम्हारे पुष्प की हमको सुगंध मिलने लगे ,
और वो सुगंध इस ज़िन्दगी की श्वास में बसने लगे ,
वो ही दिवस इस ज़िन्दगी के अनमोल दिन बन जायेंगे

वो हँसी और वो सुगंध इस रूह में है बस गयी,
मन को मन्दिर मान तेरे मन में मेरे बस गयी
गर मिले तुम तो मैं बस प्रार्थना कर पाऊंगा ,
मिल गए तो छाँव देता वृक्ष मैं बन जाऊँगा