Saturday, April 30, 2011

चौक

चौक 


राहों में यूँ चलते हुए ,
या कभी कभी फिसलते हुए,
हम भूल गए थे,
की चौक अभी बाकी है| 

सावन के मौसम में,
वो भीगी हुई राहों पर,
मिले थे हम यूँ छाता लेकर,
और संग चलने का वादा देकर|

एक साथ जूते पहने थे,
एक साथ फीते बांधे थे|
राहों पर चलने के खातिर,
एक साथ पग हम रखते थे|

मुस्कान स्वयं आ जाती है,
वो पल जब आँख में आते हैं|
जब लेक्चर में हम सोते थे ,
और प्रेक्टिकल में रोते थे|

हर एक चिंता को दूर करो,
और हंसी ठिठोली करे चलो|
अपना सिद्धांत निराला था,
अपने झोले में डाला था|

वो झोला लेकर चलते थे,
वो जूते पहने चलते थे,
वो फीते बांधे चलते थे,
वो टाई लगाकर चलते थे|

फिर पतझड़ आया गर्मी आई,
सावन आया सर्दी आई |
जूते बदले झोला बदला,
यूँही राहें दूर ले आयीं |

पर सोचा न था ये भी होगा, 
राहों में यूँ चौक मिलेगा|
कोई राह में साथ चलेगा,
कोई अलग राहों में होगा|

वो छाता छूट जाएगा,
वो जूते गुम हो जायेंगे|
झोला वो नहीं मिलेगा अब,
पर यादें संग ले जायेंगे|

जो कदम साथ रखे थे हमने,
उस चौक पर भिन्न हो जायेंगे| 
पर साथी राहें बहुत बड़ी हैं,
किसी और चौक पर मिल जायेंगे||



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3 comments:

manto said...

वाह वाह ...!!!!

Mishra said...

superb yaara..

manu said...

a great poem indeed :)