चौक
राहों में यूँ चलते हुए ,
या कभी कभी फिसलते हुए,
हम भूल गए थे,
की चौक अभी बाकी है|
सावन के मौसम में,
वो भीगी हुई राहों पर,
मिले थे हम यूँ छाता लेकर,
और संग चलने का वादा देकर|
एक साथ जूते पहने थे,
एक साथ फीते बांधे थे|
राहों पर चलने के खातिर,
एक साथ पग हम रखते थे|
मुस्कान स्वयं आ जाती है,
वो पल जब आँख में आते हैं|
जब लेक्चर में हम सोते थे ,
और प्रेक्टिकल में रोते थे|
हर एक चिंता को दूर करो,
और हंसी ठिठोली करे चलो|
अपना सिद्धांत निराला था,
अपने झोले में डाला था|
वो झोला लेकर चलते थे,
वो जूते पहने चलते थे,
वो फीते बांधे चलते थे,
वो टाई लगाकर चलते थे|
फिर पतझड़ आया गर्मी आई,
सावन आया सर्दी आई |
जूते बदले झोला बदला,
यूँही राहें दूर ले आयीं |
पर सोचा न था ये भी होगा,
राहों में यूँ चौक मिलेगा|
कोई राह में साथ चलेगा,
कोई अलग राहों में होगा|
वो छाता छूट जाएगा,
वो जूते गुम हो जायेंगे|
झोला वो नहीं मिलेगा अब,
पर यादें संग ले जायेंगे|
जो कदम साथ रखे थे हमने,
उस चौक पर भिन्न हो जायेंगे|
पर साथी राहें बहुत बड़ी हैं,
किसी और चौक पर मिल जायेंगे||
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3 comments:
वाह वाह ...!!!!
superb yaara..
a great poem indeed :)
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